दीप ऐसे बुझे हैं कि अब जलते ही नहीं,
छूटे हैं अपने ऐसे कि अब मिलतें ही नहीं,
ख्वाब बिखरे हुए हैं ऐसे कि सिमटते ही नहीं,
अब रोता हैं त्यौहार भी हमारे आशयने में ऐसे,
जैसे उसका स्वागतकर्त्ता उसे दिखता हीं नहीं,
हैं महफिले ए आशयने में और भी पर दीप अब वो दिवाली का हंस के जलता ही नहीं…
© Unnati sharma